दिल की बात: एक ख्वाब -2

यह ख्वाब में एक ख्वाब था मैं उठ खड़ा हुआ था,
न परी थी न समंदर बिस्तर पड़ा हुआ था।
थी नींद मेरी गहरी देर तक सो चुका था,
शायद परी के चक्कर में देर हो चुका था,

अब आ चुका था मंजिल बन-ठन के मैं चला था,
और फिर किसी की राह में ये मनचला खड़ा था,
सब लोग अपने काम में मशगूल हो चुके थे
कुछ खोया सा ये मनज़ला एक कोने में पड़ा था।

एक आहट दरवाजे की धीरे से थी आयी,
पलट के मैंने देखा उसी की झलक पायी।
सरसराहट सी निकल के बगल से वो गयी थी,
अपनी जगह पहुंच के मशगूल हो गयी थी,

उसको भी ये खबर थी ये उसी की चाहते हैं,
मेरी धड़कनों के अंदर उसी की आहटे हैं।
मुझे भी ये खबर थी उसे भी ये खबर थी,
पर अजीज मेरे दिल में एक अजीब सी लहर थी,
मैं  चाहता हूँ उसको वह चाहती है मुझको,
पर दिल में ये कसक थी कि उसने न क्यूं पहल की।

बस वक्त यूँ ही गुजरा एक पहर बीत चुका था,
उसकी एक नजर को ये नजर थक चुका था।
अब किस्मत भी मेरी एक मोड़ ले रही थी,
हो दीदार उसकी आँखों का ये जोर दे रही थी,
तभी हवा के झोंके ने थी खिड़कियां खड़काई,
टकरा कर उसकी एक नजर मेरी तरफ भी आयी।

हवा ने उसकी अधरों को मुस्कान दे दिया था,
मुरझाये हुए फूल को जलपान दे दिया था,
उस पर भी जब पलकों ने ले ली थी अंगड़ाई,
तभी तलक मेरी नजर उस नजर से टकराई,

कुछ छण का ये मिलन था सब खेल चल रहा था,
उसकी नजर मेरी नजर का मेल चल रहा था,
शायद उसे कोई अदा मेरी भी भा गयी थी,
उसकी नजर मेरे नजर के पास आ गयी थी,
तभी थी एक इशारा मेरी नजर ने फेरी,
थोड़ा वक्त तू भी दे दे या वक्त ले ले मेरी।

अब नजर और नजर का मेल काम कर गया था,
कुछ कसक थी जो दिल में अब वो बाम कर गया था। 
मैंने किया इशारा एहसान तू ये दे दे,
इस शाम को निकल तू एक शाम अपनी दे दे। 

सहमति से थी उसने अपनी नजर झुकाई,
खिलखिलाया चेहरा ख़ुशी की लहर छाई,
अब मैं भी एक उत्तेजना से माद हो चुका था,
ओ पूर्णिमा, ओ पूर्णिमा का नाद हो चुका। 

तभी किसी ने कान मेरा पकड़ के दबाया,
बेटा अपने तकिये का क्या हस्र है बनाया,
अचंभित था अचम्भा से मैं उठ खड़ा हुआ था,
माँ सामने थी मैं अब भी बिस्तर पे पड़ा हुआ था। 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

व्यस्त संसार में व्यक्तिगत जीवन

काश तू ऐसी होती